राजा भर्तृहरि
राजा भर्तृहरि का जीवन परिचय
सम्राट भर्तृहरि का जीवन परिचय :- राजा भर्तृहरि परमार वंश के शासक थे।उज्जैन के सम्राट होने के साथ-साथ वह संस्कृत के विद्वान कवि एवं नीतिकार थे। रानी पिंगला के वियोग में उन्होंने वैराग्य धारण कर सन्यासी बन गए और उज्जैन में स्थित एक गुफा में 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। यह गुफा आज भी उज्जैन में स्थित है,जिसे राजा भर्तृहरि की गुफाएं के नाम से जाना जाता है। यह गुफा शिप्रा नदी के तट पर स्थित है। भर्तृहरि ने शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक तथा वैराग्यशतक) नामक मुक्तक काव्य ग्रन्थ की रचना की थी।उनका जन्म स्थान उज्जैन है।उनका जन्म परमार वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम राजा गंधर्वसेन उर्फ चन्द्रसेन जो भारत के मध्य प्रदेश राज्य में स्थित उज्जैन(उज्जैयनी) के प्रतापी राजा थे।उनकी माता का नाम रूप सुन्दर उर्फ घीमती था।महाराजा गंधर्वसेन की दो रानियां थी।राजा रत्नसेन की पुत्री रूप सुन्दर उर्फ घीमती। जिससे भर्तृहरि पैदा हुए।राजा ताम्रसेन की पुत्री महेन्द्रलेखा उर्फ श्रीमती पदमावती। जिससे विक्रमादित्य पैदा हुए।दोनों रानियों से उन्हें चार संताने प्राप्त हुई,भर्तृहरि, विक्रमादित्य,सुभटवीर्य और मैनावती। सम्राट भर्तृहरि, विक्रमादित्य के बड़े भाई थे और विक्रमादित्य उनके मंत्री थे।महाराजा गंधर्वसेन की मृत्यु के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ।वह पराक्रमी धैर्यवान,सामर्थ्यवान,ज्ञान,नीति,विवेक,साम-दाम-दंड-भेद से परिपूर्ण एक चक्रवर्ती सम्राट थे। उनकी तीन रानियां थी।
- उनका पूरा नाम गोपीचंद भर्तृहरि था।
- योगीराज एवं राजा भर्तृहरि को लोककथाओं या दंतकथाओं के अनुसार गोपीचंद भरथरी(भरधरी) के नाम से भी जाना जाता है।
- राजा भर्तृहरि ने वैराग्य शतक की रचना की।
- राजा भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक की रचना की।
- राजा भर्तृहरि ने नीति शतक की रचना की।
- भर्तृहरि विद्वान,कवि ,नीतिकार एवं लेखक तो थे ही पर साथ ही वे उज्जैन के प्रतापी सम्राट भी थे।
- अनुश्रुतियों एवं जनश्रुतियों के अनुसार आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व महाराजा भर्तृहरि भारत में स्थित मध्य प्रदेश राज्य में स्थित उज्जैन के राजा थे।
- सम्राट भर्तृहरि की तीन रानियां थी।रानी पिंगला उर्फ सामदेवी उनकी तीसरी पत्नी थी।रानी पिंगला से वह अत्यंत प्रेम करते थे।
- पर अचानक उन्होंने अपना संपूर्ण राजपाठ अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सोपकर राजा भर्तृहरि जी ने गुरु गोरखनाथ का शिष्य बन कर वैराग्य धारण कर लिया और सन्यासी बन गए।
राजा भर्तृहरि की प्रमुख रचनाएँ, ग्रंथ एवं कृतियाँ
भर्तृहरि की प्रमुख रचनाएँ, ग्रंथ एवं कृतियाँ:- अपने जीवन काल में प्राप्त अनुभव के आधार पर भर्तृहरि जी ने निम्न रचनाएं एवं ग्रंथों की रचना की थी।वह एक महान संस्कृत कवि थे।संस्कृत साहित्य के इतिहास में वह एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध थे।इनके द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ "शतकत्रय"(नीतिशतक,श्रंगारशतक,वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय लोगों को अत्यधिक प्रभावित करती है और उनके द्वारा लिखित यह ग्रंथ वर्तमान में भी उपलब्ध है, जिसे आप पढ़ सकते है। उनके द्वारा लिखे गए प्रत्येक शतक में 100 श्लोक हैं।इन्हे एक लोक प्रचलित नाम "बाबा भरधरी" के नाम से जाना जाता है।इन "शतकत्रय" के अतिरिक्त "वाक्यपदीय" नामक एक उच्चश्रेणी का व्याकरण ग्रंथ भी भर्तृहरि के द्वारा लिखा गया है,जो इनके नाम पर अत्यधिक प्रसिद्ध है ,योगीराज भर्तृहरि जी के प्रमुख ग्रंथ है।
- शतकत्रय या सुभाषितात्रिशती (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक)
- वाक्यपदीयम (3 कांड).
- वाक्यपदीय टीका (1 और 2 कांड)
- महाभाष्यदीपिका (महाभाष्य टीका)
- वेदांतसूत्रवृत्ति
- शब्दधातुसमीक्षा
राजा भर्तृहरि के सन्यासी(बैरागी) बनने की कथा(कहानी)
लोककथाओं,दन्तकथाओं और किंवदंतियों के अनुसार राजा भर्तृहरि के सन्यासी(बैरागी) बनने की कथा (कहानी) बताती है कि वह कैसे गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया और सन्यासी(बैरागी) बन गए थे।भर्तृहरि जी की कथा बहुत प्रसिद्ध है जो बताती है कि वे कैसे सन्यासी बने।
राजा भर्तृहरि की कथा (कहानी) भाग-1.रानी पिंगला की बेवफाई से से संबंधित
भर्तृहरि की कहानी (कथा) भाग-1:- अपनी यात्रा के दौरान परम तपस्वी गुरु गोरखनाथ जी उज्जैन में आए,और गुरु गोरखनाथ जी भर्तृहरि राजा के दरबार में पहुंचे। राजा भर्तृहरि ने गोरखनाथ जी का अच्छे से आदर-सत्कार किया। भृतहरि के द्वारा किए गए आदर सत्कार से तपस्वी गुरु खुश हो गए और प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक अमरफल दिया।
और कहा कि इस फल को खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे,कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।चमत्कारी अमर फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए।
राजा ने इस चमत्कारी अमर फल के विषय मे गंभीरता से सोचा और निश्चित किया कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। इस फल की आवश्यकता रानी पिंगला को है इस फल को खाने के बाद वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। और यह सोचकर राजा ने फल अपनी तीसरी पत्नी रानी पिंगला को दे दिया।
रानी पिंगला भर्तृहरि जी को धोखा दे रही थी ।वह भृतहरि जी पर मोहित नहीं थी ।रानी पिंगला का प्रेम प्रसंग राज्य के कोतवाल से चल रहा था और वह कोतवाल पर मोहित थी यह बात राजा नहीं जानते थे।रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। इसलिए वह फल रानी पिंगला ने स्वयं खाकर यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया।
उस कोतवाल का प्रेम संबंध राजनर्तिकी जो की एक वैश्या थी से था और उसने वह चमत्कारी अमर फल उसे दे दिया। ताकि राजनर्तिकी सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।
राजनर्तिकी ने फल प्राप्त करने के बाद सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह वेश्यावृत्ति का काम हमेशा करना पड़ेगा। इसलिए उस फल को स्वयं ना खाकर उसने सोचा कि इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देते रहेगे। इसलिए उसने उस चमत्कारी अमर फल को राजा भर्तृहरि को दे दिया।
राजा वह फल देखकर आश्चर्यचकित हो गए । और सोचने लगे कि यह पल तो उन्होंने रानी पिंगला को दिया था यह पल राजनर्तकी के पास कैसे पहुंच विषय की गंभीरता को देखते हुए राजा ने राजनर्तकी से पूछा कि यह फल इसे कहां से प्राप्त हुआ राजनर्तकी ने बताया कि यह फल उसे राज्य के कोतवाल के द्वारा प्राप्त हुआ राजा ने तुरंत राज्य के कोतवाल को बुलाया और शक्ति से पूछने पर कोतवाल ने सत्यता के साथ बताया कि या फल उसे रानी पिंगला ने भेंट स्वरूप दिया है। इस चमत्कारी अमर फल की संपूर्ण यात्रा की सच्चाई जानने के बाद वह समझ गए कि जिस रानी से वह अत्यधिक प्रेम करते हैं।वह उन्हे धोखा धोखा दे रही है ।रानी पिंगला के इस धोखे से राजा भर्तृहरि इतने आघात हुए कि उनके मन में वैराग्य जाग गया और उन्होंने अपना संपूर्ण राजपाट अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप कर गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया और सन्यासी(बैरागी) बन गए थे। और उज्जैन की एक गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की।
राजा भर्तृहरि की कथा (कहानी) भाग-2. रानी पिंगला के वियोग में हो गए थे सन्यासी
भर्तृहरि की कहानी (कथा) भाग-2 :- इस कथा के अनुसार रानी पिंगला भृतहरि से बेहद प्रेम करती है।एक बार राजा भृतहरि जी शिकार के लिए वन में गए थे। तभी अचानक उन्होंने वहाँ देखा कि एक पत्नी ने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपनी जान दे दी। अपने पति के प्रति पत्नी का प्यार देख कर राजा बहुत ही आश्चर्यचकित हो गए।और वह सोचने लगे कि क्या मेरी पत्नी भी मुझसे इतना प्यार करती है। जब वह महल में वापस आए तो उन्होंने उस घटना को अपनी पत्नी रानी पिंगला को बताया, इस घटना को सुनकर रानी पिंगला ने कहा कि वह तो मृत्यु का समाचार सुनने से ही मर जाएगी। चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। यह सुनकर राजा भृतहरि सोचते हैं कि
क्या रानी पिंगला सत्य बोल रही है या नहीं इसलिए उन्होंने रानी पिंगला की परीक्षा लेने का सोचा और योजना अनुसार भृतहरि जी शिकार खेलने गए और अपने दूत के माध्यम से रानी पिंगला के पास समाचार भेजते हैं कि शिकार करते समय राजा भरथरी की मृत्यु हो गई है। जैसे ही यह खबर रानी पिंगला सुनती है वह उसी वक्त अपने प्राण त्याग देती है । जब वहां शिकार से वापस आते हैं तो उन्हें पता चलता है कि रानी पिंगला ने अपने प्राण त्याग दिए तो उन्हें बहुत आघात पहुंचता है और अपने आप को दोषी ठहराते हुए विलाप करने लगते हैं और उसी वक्त वहां अपने गुरु गोरखनाथ जी के शरण में जाते हैंऔर उन्हें पूरा वाकया बताते हैं तो गुरु गोरखनाथ जी की कृपा से रानी पिंगला पुनः जीवित हो जाती है पर इस घटना के बाद भृतहरि जी गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया और सन्यासी(बैरागी) बन गए थे।
राजा भर्तृहरि की कथा (कहानी) भाग-3.मरणासन्न मृग की करुणामयी बातें सुनकर
भर्तृहरि की कहानी (कथा) भाग-3 :- एक बार राजा भर्तृहरि अपनी रानी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में आखेट(शिकार) के लिये गये हुए थे। पर उस दिन वहाँ पर उन्हें कोई शिकार नहीं मिला।निराश होते हुए राजा- रानी जब वापस महल लौट रहे थे, तभी अचानक उनके मार्ग में उन्हें हिरनों का एक समुह दिखाई पड़ा। समुह के आगे एक मृग चल रहा था।भर्तृहरि ने उस मृग का शिकार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोक लिया और नम्रता से निवेदन करते हुए कहा कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और समुह पालनकर्ता है। इसलिये आप इस मृग का शिकार न करें। पर भर्तृहरि जी ने पिंगला की बात नहीं मानी और मृग पर प्रहार कर दिया । प्रहार से आहत होकर मृग घायल होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते मृग ने राजा भर्तृहरि से कहा आपने यह उचित नहीं किया। आपको अब मेरी अंतिम इच्छा पूरी करनी होगी मेरे मरने के बाद आपको उसका पालन करना पड़ेगा मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को देना, मेरे नेत्र चंचल नारी को देना, मेरी त्वचा साधु-संतों को देना, मेरे पैर भागने वाले चोरों कोदे देना और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मृग की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। मृग का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। मार्ग में उन्हें बाबा गोरखनाथ जी मिले।भर्तृहरि जी ने इस घटना को गोरखनाथ जी को अवगत कराया और उनसे मृग को जीवित करने की प्रार्थना की।इस पर गुरु गोरखनाथ जी ने कहा कि में एक शर्त पर इस मृग को जीवनदान दे सकता हूं। तो राजा भर्तृहरि जी ने कहा कि मुझे आपकी शर्त मंजूर है। गोरखनाथ जी ने कहा कि इस मृग को जीवन दान देने के बाद तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा ,तो राजा ने गोरखनाथ जी की बात मान ली और वह उनके शिष्य बन गए ।